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Bijapur:- ग्रामीणों के साथ छल हितैषी बनने का ढोंग कर सोनी सोरी हो रही राजनीति में शामिल

बस्तर। छत्तीसगढ़ कि एक ऐसी जगह जहां की खूबसूरती और कलाकृतियों ने पूरे देश और दुनिया में अपना लोहा मनवाया है। तो वही यहां के आदिवासी ग्रामीणों की मांगों ने भी संसद और सदन तक को हिला कर रख दिया है। बस्तर एक ऐसी पहेली है जिसे शायद ही कभी कोई सुलझा पाएगा। ग्रामीणों की तकलीफों से लेकर स्थानीय जवानों और पुलिस की बयानबाजी,इन दोनों को जितना समझने की कोशिश करेंगे उतना ही उलझते जाएंगे।

एक ओर जहां ग्रामीण पुलिस प्रशासन से पीड़ित होने की और आए दिन झूठे नक्सली के आरोप में जेल और गोली का शिकार होने की तकलीफ बताते हैं। तो वहीं पुलिस इन ग्रामीणों को नक्सली करार देते हुए इनके खिलाफ कार्यवाई कर अपना फर्ज निभाने की बात कहते है। इन दोनों के बातों में आखिर कौन सही है और कौन गलत यह अनसुलझा रहस्य तो शायद ही कभी सूलझ पाएगा। लेकिन इस बीच आदिवासियों की जो मांग है उन पर शासन प्रशासन द्वारा गंभीरता से ना ही जांच किया जा रहा है ना ही उनकी बातों को सुना जा रहा है।

नतीजा यह कि दिनोंदिन यह आदिवासी ग्रामीण और भी आक्रामक होते जा रहे हैं और आज बस्तर में 23 से 24 जगहों पर आंदोलन जारी है। बस्तर के ज्वलंत सिलगेर मामला जो विरोध से एक विद्रोह बन चुका है। आज तक उनकी मांगों को पूरा नहीं किया गया। बीते 17 मई के उस गोली की गूंज ने आदिवासियों के सीने में दबी आग को चिंगारी देने का काम किया। जब आदिवासी बड़ी तादाद में सड़कों पर उतर आए।

अपनी मांगों को सरकार के सामने रखने का भरकर प्रयास करते नजर आए और उनके बीच एक सशक्त माध्यम और आवाज बनने का काम किया समाजसेवी सोनी सूरी ने। जिन्हें आदिवासियों का मसीहा और उनका पक्षकार कहा जाता था। और जिनपर आदिवासी बंद आंखों से भरोसा करते थे। लेकिन कहते हैं कि जो सबसे ज्यादा अजीज होता है पीठ पर छुरा भी वही घोंपता है। और कुछ ऐसा ही हुआ मासूम आदिवासियों के साथ जिस सोनी सोरी को वह अपना सब कुछ समझते थे जिनकी हर बात मानते थे उसी सोनी सूरी ने उनके साथ कपट कर या कहें विश्वासघात कर उनके पीठ पीछे सरकार से ही हाथ मिला ली।

दोहरे चेहरे से खेला आदिवासी की भावनाओं से खेल

आदिवासी ग्रामीणों के मुताबिक जिस समय सिलगेर का आंदोलन चरम पर था उस समय सोनी सूरी ने आदिवासियों के साथ होकर उनके इस आग को और बढ़ाने का काम किया। मासूम आदिवासियों ने समझा कि सोनी सूरी उनके लिए एक फरिश्ते से कम नहीं जो उनके इस मुसीबत में उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी है। लेकिन इस सच्चाई से भी उस समय पर्दा हट गया जब सोनी सोरी ने अपने आपको इन आदिवासियों से अलग कर लिया। कुछ दिनों तक आदिवासियों को उनकी मांग दिलाने की बात कर सोनी सूरी ने आदिवासियों की नजर में अपने लिए वाहवाही तो बटोर ली, लेकिन दूसरी ओर सरकार तक उनकी बात पहुंचाते पहुंचाते उनकी आवाज ही धीमी हो गई। लेकिन इसके पीछे का कारण जो कारण था वह अब जाकर कहीं खुल रहा है।

सरकार तंत्र से मिलकर सोनी सूरी ने इसमें भी अपना लाभ निकाला। आज तलक सिलेगेर का आंदोलन जारी है लेकिन सोनी सूरी की उपस्थिति वहां ना के बराबर या यूं कहें कि उन्हें यह भी नहीं पता कि आंदोलन में लोग है भी या नहीं। लेकिन उनके इस बर्ताव से आदिवासियों के दिल को जरूर ठेस पहुंचा है। अब यह ग्रामीण सोनी सूरी को अपने आसपास देखना भी नहीं चाहते। उन्हें अब यह समझ आ गया है कि जिस सोनी सूरी ने सिलगेर आंदोलन में बढ़-चढ़कर आदिवासी हितैषी होने का दावा किया था वह भी ढलते सूरज की तरह ढल चुका है। इस बात का अंदाजा उन्हें इसी वक्त हो गया जब सिलगेर में कुछ दिनों के बाद सोनी सूरी ने पलट कर देखना भी मुनासिब नहीं समझा।

जिन आदिवासियों की हितैषी होने की और समाज सेविका होने की बात सोनी सूरी करती हैं आखिर ऐसा क्या हुआ कि सोनी सोढ़ी ने सिलगेर आदिवासियों को उनके हाल पर छोड़ दिया । जब सरकार और ग्रामीणों के बीच में मध्यस्थता कराने में सोनी सूरी माहिर हैं तो आखिर क्यों ग्रामीणों की मांग पूरी नहीं हुई और इससे पहले ही सोनी सूरी ने अपने हथियार डाल दिए? सवाल इसमें बहुत सारे हैं और जवाब किसी और ही दिशा में इशारा कर रहे हैं।

आंदोलन में आदिवासियों के लिए नहीं बल्कि अपना स्वार्थ साधने के लिए सोनी सोरी ने किए थे आवाज बुलंद

ग्रामीणों ने जिस तरह से सोनी सोरी के खिलाफ अपनी बात कही उससे यह अंदाजा तो लग ही गया है कि उन्हें कितना बड़ा विश्वासघात का सामना करना पड़ा। पहले ही यह आदिवासी ग्रामीण अपने साथ होने वाली प्रताड़ना से जूझ रहे हैं तो वहीं दूसरी ओर उनके हितैषी बन उनके कंधे में बंदूक रख समाज सेविका और आदिवासी हितैषी बनने का ढोंग कर ऐसे लोग अपना लाभ फलीभूत कर रहे हैं। वही अब सूत्रों की माने तो सोनी सूरी ने कुछ सरकारी तंत्रों द्वारा दिए गए प्रलोभन में आकर अब राजनीति में कदम रखने का फैसला लिया है। जिसके लिए वह बहुत जल्द ही सरकार से मिलने वाली है। एक महिला जिन्हें प्रदेश अब तक आदिवासियों की संरक्षिका के नाम से जानते थे,आदिवासी जिसे अपना सबसे बड़ा मजबूत स्तंभ मानते थे, जो आज तक इसी अंधकार में जीते आए हैं

की सोनी सोरी हमेशा उनके हित के बारे में सोचते हुए उन्हें उनका इंसाफ जरूर दिलाएगी वह वहम दूर हो जाएगा। यह तो नहीं पता कि, इस बात में कितनी सच्चाई है लेकिन अगर वाकई यह बात सच है तो इस बात के सामने आने के बाद सभी का भ्रम टूट जाएगा। मासूम आदिवासी जो हमेशा छल का शिकार होते आये हैं आज उनके साथ एक बार फिर छल होगा और वह यह विश्वास नहीं कर पाएंगे कि अब उनका अपना कौन है और उनका पराया कौन?

वैसे भी आदिवासियों के हक की बात कर हर कोई अपनी रोटी सेकते आ रहे हैं। मरने के लिए इन मासूम आदिवासियों को आगे कर दिया जाता है लेकिन आदिवासियों के एवज में मोटी रकम कोई और वसूल करता है। नक्सलियों और पुलिस के बीच पिसते आ रहे यह आदिवासी उनके हितैषी होने का ढोंग करने वाले ऐसे समाज सेविकाओं के भी स्वार्थ के हत्थे चढ़ जाएंगे यह उन्होंने खुद कभी सोचा नहीं था। जल जंगल जमीन की लड़ाई लड़ते आ रहे आदिवासी ना सिर्फ धोखे का शिकार हो रहे हैं बल्कि उनकी तकलीफों को, उनकी मजबूरियों,उनकी मांगों को सुनने के लिए ना ही किसी के कान खुले हैं और ना ही कोई उन्हें देखना चाह रहा है। वह केवल वोट बटोरने का एक जरिया बनकर रह गए हैं जिन्हें जरूरत के समय याद तो कर लिया जाता है लेकिन उसके बाद उन्हें दूध में से मक्खी की तरह निकाल कर फेंक दिया जाता है।

Nitin Lawrence

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